मुझे महशुस तोह होता था , आसमा सा कुछ भी नही,
ये तोह धुंध का वज़ूद है !
पंखों मैं हवा भरे क्या होता है ,
उड़ान, तोह — होसला भरता है !
ये ज़मीनी हक़ीक़त चुभती है,
और दिन रात मेरी रूँह तार्रों को मंज़िल समझती है!
एक मुलाकात मुझसे कहती है!
मेरे ख्यालों में हक़ीक़त अब भी वसती है!!
~अमिता चौरसिया~
ख़ामोशी का शोर तोह — बहुत था ,
आँखों की बेरुखी भी कम ना थी ,
तब भी हम हाथ थामे रहे ,
उसकी ख़ुशी में शामिल रहे।।
अमिता
ये पागल जमाना हमें समझाता है,
खुद ही वक़्त और खुद ही हालत बन जाता है ,
हम थोड़ा गहराई से देखे तो,
आंत तो नहीं अनंत की और जाता है।
अमिता
बेईमानी की चादर से अच्छा,
हम आज बेआबरून हो जाये।
रास्तों से मुकम्मल होती है मजिले ,
तुम हमसफ़र बांके वक़्त जाया ना करना।
अमिता